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हिन्दी जोन की नवीनतम रचनाएँ तथा आलेख

कुत्ता हीं भगवान है

कुत्ता हीं भगवान है और बिल्ली हीं कायनात की रानी
 

इस दुनिया मे जनम लेनेवाला हर शख्स वास्तव मे विद्वान हीं बनकर आता है मगर पढ़ते-पढ़ाते, सिखते-सिखाते एकदिन पूरा का पूरा फंटूस बन जाता है | फिर, वह बात-बात पर ठिठकने लगता है | कुछ पूछने से पहले अपने इम्प्रैशन के बारे मे सोंचता है; कुछ बोलने से पहले तीन घंटे की बातचीत का मन हीं मन रिहर्सल कर लेता है; कुछ करने से पहले अगले सात जन्मों तक के परिणाम का अनुमान लगा लेता है | यहाँ तक कि ज्यादा विद्वान लोग तो हंसने-रोने और सोंचने से पहले भी कई बार सोंच लेते हैं | वो तो भला हो महापंडित कालीदास का जिन्होने मूर्ख जनम लेकर भी इंसानी विद्वता की लाज रख ली, वरना जाने कितने गदहे अपने आप को पंडित मान मान कर निपढ़ हीं मर गए होते |


कालीदास के फ़िलोसोफी से भी अछूता नहीं रहा हूँ | विकेट पर गेंद फेंकने से पहले कई बार सोंचने के कारण  जब खिलाड़ी अपने गंतव्य स्थान तक सुरक्षित पहुँच जाता था तो अगली बार मै खिलाड़ी के क्रीज़ से पैर बाहर निकालते हीं गेंद फेंक दिया करता था | कई दिनों तक कपड़े को फींचने से आलस महसूस होने पर लास्ट मे एक बंडल को हड़बड़ी मे धोबी की तरह पटक-पटककर निबटाया करता था | यही हाल क्लास मे भी हुआ करता था | रोज रोज होमवर्क करने से बचते-बचते एकदिन सारा का सारा होमवर्क रातभर जागकर पूरा करता था | संक्षेप मे, कालीदास ने मेरे जीवन के हर पहलू को छुआ है और काफी हद तक मुझे यह याद दिलाया है कि मनुष्य वास्तव मे बंदरों की हीं संतान है |


शिक्षा के इस पाठ मे कुत्तों का जिक्र ना हो तो सारी चर्चा हीं अधूरी रह जाये | कुत्तों को निस्सहाय समझकर मैंने लड़कपन मे उनपर जो जुल्म ढाये हैं, अगर आज के कुत्तों को पता चल जाये तो मेरे हांथ से रोटी भी लेना स्वीकार न करें | मसलन, उनकी पूंछ मे पटाखे बांधना, जबरन उनकी बॉडी पेंट कर देना, उनकी पहुँच से दूर रोटी बांधना आदि इत्यादि ... | किन्तु, सबसे बड़ी खता अगर रही तो छत के ऊपर चढ़कर उनके ऊपर ढेले गिराने की | मेरे घर जाते हीं सारे कुत्तों मे दहशत का माहौल कायम हो जाता था | अलबत्ता सभी कुत्ते मुझे भूत हीं समझा करते हैं | कुत्तों को हड़काकर मै खुद को हीरो और कुत्ते मुझे अव्वल दर्जे का विलेन समझा करते थे | आज उनकी आँखों मे अगर सारा ब्रह्मांड नजर आता है तो यह कालीदास का हीं कमाल है और कुछ नहीं |


विपत्ति मे जो काम आता है वही भगवान होता है यह लोग बताया करते थे | यदि उनकी बात सच थी तो आज मैंने भगवान को ढूंढ लिया है | वह पुआल के गल्ले पर बैठा हुआ निरंतर मेरे ओर देख रहा है | मुझे खेद है कि मै उसका कसूरवार हूँ | उसे इसबात से कुछ भी मतलब नही कि मैंने उसके पूर्वजों के साथ क्या किया | मै उसे अब भी अछूत समझता हूँ, वह मुझे अपने बच्चों से भी ज्यादा भाव देता है | मै घर के भीतर शान से सोता हूँ, वह घर के बाहर रातभर जागकर मेरे रखवाली करता है | मै शर्मिंदा हूँ अपने इतिहास पर, वो हैरान है मेरे उदासी पर |


मैंने भगवान की पूजा करके हजार बार धोखे खाये हैं | सफलताओं मे उसे पूजा है, विफलताओं मे उसपर ताने कसे हैं | किन्तु, वह दूर बसने वाला खुदा हमेशा खामोश रहा है, जब भी काम आया है तो वही भीतर का कालिदास | इन्ही कालीदास के प्रताप से आज बंदरों पर ढेले कोई और फेंकता है और वो एंटीना मेरे मकान का आकर तोड़ते हैं | किसी को अपना समझ कर उधार देता हूँ तो अपनी अमानत समझकर रख लेता है | कभी ज्यादा अपनेपन से किसी का हाल पूछता हूँ तो वह अपने कई जन्मों का दुख बयान करने मे चूकता नहीं | मगर इस बात का मुझे कोई खेद नहीं क्योंकि मैंने भगवान को खोज लिया है | उसे हर दिशा मे देख रहा हूँ, उसे हरेक इंसान के दिल मे ताक रहा हूँ | हर वाकये के पीछे छुपे हुए मसले को महसूस किया है | दरअसल, कुत्ता हीं भगवान है और बिल्ली हीं कायनात की रानी |

नसीमे-सहर: The morning air


नसीमे-सहर बदगुमां हो चली है ।
घुटन से भरी दास्ताँ हो चली है |

कहाँ सांस लेंगे शजर के परिंदे;
हवा थी जो पहले धुआँ हो चली  है |

लगाती है लेकिन बुझाती नहीं है;
बड़ी बेमुरव्वत समा हो चली है |

मिराजे-मुहब्बत भी दिखता नहीं है;
यहाँ दर्द अपनी दावा हो चली है |

तू घर से निकल तो संभलकर मुसाफिर;
की अब जीस्त भी बेवफ़ा हो चली है |

ज़िंदगी के रंग

ज़िंदगी के रंग - colors of life



भोला सर पर हाँथ रखकर बैठा था | इधर धड़ाधड़ फोन पे फोन आ रहे थे | इलेक्सन हारने का उसे इतना ग़म नहीं था जितना कि पैसों की बरबादी का | अगले महीने उसके मौसी की लड़की की शादी थी – न्यौता भी पूरा करना था, और कुछ तोहफा भी देना था | चुनाव प्रचार और वोट बटोरने के चक्कर मे उसकी जेबें यूँ खाली हुई जैसे छेद वाले कनस्तर से पानी | अब जो रुपये बचे थे उनसे घर का राशन-पानी भी चला पाना मुश्किल था | सबसे बड़ी चिंता तो यह थी कि दो दो  महीने बाद हीं उसकी इकलौती बेटी पाँचवीं कक्षा मे प्रवेश करने वाली थी, और कोनवेंट की फीस उसके खाली बटुए के समक्ष सुरसा की तरह मुँह फाड़े खड़ी थी | लिहाजा, उसका हाँथ सर से उठ नहीं पा रहा था |

 

ऐसा नहीं था कि चुनाव मे हारने का उसे ग़म हीं न हो | उसने काफी बड़े बड़े ख़्वाब बुने थे, और जनता को रिझाने के वास्ते अनेक लुभावने वादे भी किए थे | मगर जो परिणाम आए वह किसी और तो क्या खुद को भी बताने के लायक नहीं थे | इतनी सफाई से लोहापुर कि जनता ने उसकी भड़कीली पतलून उतारी थी कि उसके अति-आत्मविश्वास की फटी हुई लंगोट अरुणोदय के सूर्य के समान अप्रत्यासित रूप से उभर कर प्रगट हो गयी थी |
अब वह इसी सोंच मे निमग्न है कि किस किस को क्या क्या कहना है, तथा क्या बहाना बनाकर खुद कि लज्जा बचानी है | पिताजी को क्या कहकर मनाना है जिनके लाख मना करने के बावजूद भी उसने यह आत्मघाती कदम उठाया | माँ को किस प्रकार बहलाना है जिनके सामने उसने बड़ी बड़ी डींगें हाँकी थी; और, पत्नी से कैसे नज़रें मिलानी है जो आज़ से पहले तक यही सोंच रही थी कि समूचे इलाके मे उसके पति से ज्यादा भरोसेमंद और मददगार मित्र किसी और के न थे |


कभी कभी तो उसे स्वयं पर भी हंसी आती | वह कौन सी घड़ी थी जब उसके सर पर इलेक्सन मे उतारने का भूत सवार हुआ था, और वह कौन सा दोस्त था जिसने उसे यह नेक सलाह दी थी | 16 वोट – ऐसा लगता है जैसे किसी भिखारी के आधे घंटे की कमाई, अथवा किसी छोटे बच्चे के गुल्लक मे जमा की गई एक दिन कि पूँजी | उसने मन हीं मन मे कुछ आंकड़े जोड़े ... 13 वोट तो उसके घर परिवार के हीं हो गए | एक वोट रहा उसका अपना | कुल मिलाकर हुए 14 | फिर वो कौन से दो मूढ़मति से जिन्होने उसके पक्ष मे मतदान किया | भोलू का मन आशंकाओं से भर उठता है ... कहीं उसके घरवाले भी तो ... नहीं ऐसा नहीं हो सकता ... सबने मिलकर अच्छा उत्साह जताया था ... फिर वो दो मत किसके थे ? और, और बाकी के वोट कहाँ गए ?? यही यक्ष-प्रश्न उसके मन-मानस को झकझोर रहे हैं | 


भोलू उर्फ आत्माराम त्रिपाठी – कटिहार के एक छोटे से कस्बे मे जनमा था, तथा अपनी पढ़ाई कोलकाता मे जाकर पूरी की थी | उसके पिता उसे वकील बनाना चाहते थे, और उसकी माँ ने उसके डॉक्टर बनने के ख़्वाब पाल रखे थे | मगर वह स्वयं एक पेंटर बनना चाहता था | लंबी कद-काठी, चौड़ा सीना और घुँघराले बाल उसके व्यक्तित्व को रौबदार बनाते थे; तिसपर चौड़ा ललाट और उभरे हुए जबड़े उसकी उपस्थिती को और प्रभावशाली दृष्टि प्रदान करते थे | वह चबा चबाकर बोलता था, तथा उसकी आवाज़ गाढ़ी और दमदार थी | इस प्रकार वह एक नैसर्गिक लीडर था, और अपने बोलने की अलग शैली की वजह से - स्कूल-कॉलेज, आस-पड़ोस, नेता-अधिकारी – हर किसी के बीच प्रसिद्ध था |


चित्रकार बनने का सपना उसने बचपन से हीं अपने चाचा गंगूराम से विरासत मे पाई थी, जो स्वयं भी एक मझे हुए कलाकार थे | अच्छे चित्रकार होने के बावजूद गंगूराम प्रचूर प्रसिद्धि और पैसा कमाने मे असफल रहे थे | इसलिए उन्होने आत्माराम के हुनर को परिपोषित और प्रोत्साहित करने मे खासा रुचि दिखाई | आत्माराम चित्रकारी करता, और उसके चाचा उयकी तरीफ़ | इस तरह लड़कपन मे हीं भोलू एक परिपक्व और धारदार चित्रकार मे परिवर्तित हो गया, और पेंटिंग उसके राग-राग मे कुछ इस तरह समा गई कि उसे स्वयं भी इस बात का आभास नहीं हुआ | 


समय पंख लगाकर उड़ता गया, और भोलू जिंदगी के हरेक रंग को अपनी जीवंत तशवीरों मे उकेरता गया | इस दरम्यान जीवन पथ पर कितने मोड तथा कितने उतार-चढ़ाव आए – यह सब अब भोलू के दिलोदिमाग से लगभग विस्मृत हो चुका है, और वह अब भी सर पकड़ कर परम ध्यान की मुद्रा मे बैठा हुआ है | घड़ी अपनी टिक-टिक की से उसकी बेचैनी बढ़ा रही है | कहीं दूर से रेलगाड़ी के सायरन की आवाज़ सुनाई देती है | भोलू की तंद्रा भंग होती है, और वह पुनः वर्तमान मे लौट आता है | 


उसके सामने अब जीवन की सबसे बड़ी चुनौती आ खड़ी है – आजीविका | अपनी महत्वाकांक्षा के अतिरेक मे अपनी जवानी मे वह कई सारी सरकारी भर्तियाँ निकाल कर छोड़ चुका है | उसे सनक थी पढ़ने की,और पढ़कर कोई अच्छा प्राइवेट जॉब करने की; और उसने ऐसा किया भी | परंतु विपत्ति ने अपने पधारने से पूर्व हीं उसके विवेक को हर लिया था, वरना कौन अच्छी-ख़ासी नौकरी को लात मारकर पंचायत चुनाव मे अपनी किस्मत आजमाने चला आता है | यह कहना जरा भी गलत नहीं होगा कि बुरे वक्त ने आगमन से पूर्व उसके दिमाग के कपाट को बंद कर दिया |


भोलू को वह दिन अच्छी तरह याद है जब उसने मामूली बीमार पड़ने पर घरवालों के दबाव एवं डर के आगे घुटने टेक दिये, और यह नहीं सोंच पाया कि उम्र गुजर जाने के उपरांत कौन कमबख्त उसे नौकरी देने कि जोखिम उठाएगा | उसने सोंच रखा था कि नौकरी से कुछ कमाने पर वह अपनी तशवीरों की एक प्रदर्शनी लगवाएगा; और इस प्रकार अपने ताऊ गंगूराम की दिली ख़्वाहिश और स्वयं की अभिरूचि को एक नया आयाम प्रदान करेगा | जीवन के इस आपाधापी मे वह अपने मित्रों और सगे संबंधियों से लगभग कट सा ज्ञ था | यह भी एक ऐसा पहलू था जिसे भोलू लगातार नज़रअंदाज़ करता गया | 


यह अक्षरांशतः सत्य है कि भोलू अभिमानी नहीं था, परंतु वह लोगों की निगाहों मे खुद को तौल नहीं पाया, और उनकी निगाहों मे अपनी कीमत ठीक से आंक नहीं पाया | कोई भी अनुभवी व्यक्ति यह बड़ी हीं आसानी से बता देगा कि आत्म-सम्मान और अहंकार के बीच महज़ रत्ती भर का फर्क है, तथा अति आत्मविश्वास का विश्लेषण अक्सर दोस्त और मुरीदों द्वारा गर्व के रूप मे किया जाता है | अलबता, वह समाज मे खुद के प्रति पनपती हुई गलत धारणा एवं सोंच को सही से ताड़ नहीं पाया | उसने जब-जब अपने लच्छेदार भाषणों मे स्वच्छंदतापूर्वक अपने नवीन विचार प्रगट किए, लोगों ने उसे उसका गुरूर समझा | उसने जब जब भी अपने दुर्भेद्द तर्कों से एक समतवादी माहौल बनाने की कोशिश की, बुजुर्गों और युवाओं दोनों ने उसे समान रूप से अपनी तौहीन समझी | नादान भोलू यह समझ नहीं पाया कि जनता का वोट पाने के लिए उनके मन को अच्छी लगाने वाली बात करनी पड़ती है, न कि अपने गहरे और गूढ चिंतन से उनके वैचारिक धरोहर को चुनौती दी जाती है | 


भोलू मुंह के बल गिरा है | उसके विरोधी खुश हैं | उसके दोस्त खफ़ा हैं | उसके रिश्तेदार नातेदार जुदा हैं | उसके पास चंद कैनवस एवं कुछ तूलिकाएं हैं | उसका सबसे वफादार साथी उसका कुत्ता रॉकी है जो दुर्भाग्यवश वोट नहीं दे सकता | उसके संगी-साथी बगीचे के पेंड़-पौधे हैं; उसके संघर्ष के साक्षी भूतल के पशु-पक्षी, जमीन, बहती हवा और आसमान है | उसका प्रतिद्वंदी वह स्वयं है |


भोलू चाहकर भी कुछ और सोंच नहीं पाता | उसका मनोबल पस्त है | उसका आत्मसमान धूल मे ठोकरें खा रहा है | वह पुनः एक गहरे विमर्श मे तल्लीन हो जाता है | उसने कहाँ गलतियाँ की ? उसके सारे साथी उससे नाराज़ क्यूँ हैं ? क्या वजह है कि उसके सबसे भरोसेमंद सिक्के – जिनकी वफ़ा और स्नेह पर उसे नाज़ था – आज़ अचानक खोटे सिद्ध हो गए ? क्या कारण है कि वह एकदम परित्यक्त एवं अकेला महसूस कर रहा है ? भोलू निराशा के चरम पर है | ज़िंदगी भर की दोस्ती और वफ़ादारी का ऐसा सिला ! जाने-पहचाने तो अलग, अंजाने लोगों का नाहक हीं मदद करने का ऐसा प्रतिदान ! कुछ पलों के लिए उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे जमीन-आसमान, चाँद-सितारे सभी मिलकर उसकी खिल्ली उड़ा रहे हों | वह सर को और मजबूती से पकड़ लेता है |


तभी उसे ऐसा लगा मानो उसके स्वयं की अंतरात्मा उससे कुछ कह रही है; वह गौर से सुनने लगता है |
“भोलू”
“क्या है ? अब कौन मुझे पुकार रहा है और क्यूँ ?”
“मै हूँ – तुम्हारा अक्स |”
“क्या बात है ?”
“रूठे दोस्तों को नहीं मनाना क्या ? अपने ख्वाबों की ज़िन्दगी नहीं जीनी क्या ?”
“मगर कैसे ?”
“उस एक सपने से जिसे तुमने बालपन से हीं अपने जेहन मे पाल रखा है |”
“मगर वह सपना तो अब सपना हीं बनकर रह गया है |”
“नहीं, वह सत्य भी हो सकता है |”
“पहेलियाँ मत बुझाओ; जो कहना है साफ-साफ कहो |”
“तो उठो और अपनी तूलिका संभालो | जीवन कई पहलू आज़ भी अनछुए से हैं; अपने अहसाह के रंग उनमे भरो | देखो ! तुम्हें सारी कायनात पुकार रही है | रंजो-ग़म की मारी दुनिया तुम्हारे हसीन चित्रो को अंगीकार कर अपनी क्लांति मिटाना चाहती है | जागो मेरे हमसाये ! नवजीवन कि ज्योति तुम्हें आवाज़ देकर पुकार रही है | उन्हे कदापि निराश मत करो |”


भोलू उठता है | इस छोटी सी ज़िंदगी मे उसने ऐसे कितने रंग देख लिए कि शायद वह आज से प्रारम्भ करके कभी भी खत्म न कर पाये | उसने तूलिका पकड़ी – ओह, तो यह है मेरा सबसे भरोसेमंद मित्र – पेंटिंग |


दो लोरियाँ - भोजपुरी गीति काव्य

दो लोरियाँ - भोजपुरी गीति काव्य - Two Bhojpuri Songs
दो लोरियाँ - भोजपुरी गीति काव्य


भोजपुरी लोरी - 1


आजा आजा गुपचुप से निनरिया |
हमरी रनिया सुगनिया के अँखियाँ || chorus |

देखुअ रजनी भईल अंगनारे;
अब जगिहें सकल नभ-तारे |
सुतिअ गईलेअ रे सऊँसे दुनिया |
हमरी रनिया सुगनिया के अँखियाँ || 1 |  

जागि-जागि रे कटलअ दुपहरिया;
चहचहईलनअ गाँव रे नगरिया |
डूबि गईले रे कब के किरिनिया |
हमरी रनिया सुगनिया के अँखियाँ || 2 |

आजुअ सबल भईल फुलवरिया;
एहिजा आवेलें खुब परदेशिया |
आगे बढ़लअ नगर रजधनिया |
हमरी रनिया सुगनिया के अँखियाँ || 3 |

हरियाल कुसुम तोरे बगिया;
जहवाँ सुरभिअ बहेले पुरधुनिया |
भोरे करिहेअ उनति सँग सखियाँ |
हमरी रनिया सुगनिया के अखियाँ || 4 |


भोजपुरी लोरी - 2


सुति, सुति जाहूँ रतन हमार।
पंछी परेवा सबहिं उड़ि गइलें,
भईले नगर मे अन्हार||0|

सऊंसे डगरिया अमन के बसेरा,
सीमवा पे रहेला करार;
हमनी के रासेला अपन मड़इया,
जागेला पहरेदार||1|

धानी रंग चुनरी, बादामी रंग आँचर,
चमकेला मुलुक तोहार;
काज रे जमुनका, रिवाज़ रे पुरनका,
तजि अइले नवकी बहार||2|

बग़िया के नान्ह पौअध तूहूँ बाड़अ,
बाड़अ अभी सुकुमार|
बनिके दियरिया तू रहिया देखइहअ,
होखिहअ जे सबल सकार||3|

आउ रे सपन मोरे लाल के अँखिया,
गते-गते करु रे विहार;
नेहिया जगाई देहूँ पलक अटरिया,
भोरवे जागेला सनसार||4|

मुक्त -The Freed Person - हिन्दी अकविता

मुक्त - हिन्दी अकविता - The free woman
एक अबला के मुक्त होने की काव्य कथा


एक चिंगारी थी --
विलुप्त हो गयी |

पुष्प चढ़े
दिये जले
आँसू बहे
वह खामोशी से प्रसुप्त हो गयी |

जो उसका अपना था कसूरवार बना,
झूठ,
वहम,
अफवाहें,
और, वह तृप्त हो गयी |

उसके अपमान का फिर हुआ सम्मान,
आंदोलन
प्रदर्शन
व्याख्यान
पहले अबला थी, मुक्त हो गयी |


आज़ादी के पचहत्तर वर्ष: जियो तो भारतवर्ष के लिए

आज़ादी के पचहत्तर वर्ष: जियो तो भारतवर्ष के लिए - 75 years of indian independence and our mentality towards country
आज़ादी के पचहत्तर साल और हमारी सोंच

 

आज़ादी के पचहत्तर वर्ष पूरे हो गए, अमृत महोत्सव का बहाना भी है और फिर से मिल गया है हमे एक मौका अपनी स्वाधीनता का जश्न मनाने का | चौक-चौराहों पर तिरंगों के ढेर झूल रहे हैं | बच्चे अपने घरों मे कल के प्रोग्राम की रिहर्सल मे तन मन से जुट गए हैं | फिज़ाओं मे एक अजब सी खुशबू तैर रही है | पशु-पक्षी भी हर्षातिरेक मे नाच रहे हैं | यह सचमुच हर्ष और गर्व की बात है कि हम स्वतंत्र हैं; और भी अच्छा हो यदि हमारी यह स्वतन्त्रता चिरस्थायी होकर समूचे विश्व के लिए एक मिसाल बन जाय |


क्या आपने कभी जीवन के बारे मे सोंचा है ? क्या अपने जीवन के मकसद के बारे मे सोंचा है ? यदि हाँ तो क्या यह भी सोंचा है कि वह कौन सा मकसद था जिसके सामने भगत सिंह का जीवन छोटा पड़ गया था ? क्या आपने यह विचारा है कि एक अच्छे बैरिस्टर होने के बावजूद गांधी जी ने लाठी लेकर पैदल चलना क्यूँ पसंद किया ? मेरे दोस्त, कभी कभी जिंदगी का मकसद जिंदगी से बड़ा हो जाता है; और, ये वही कुर्बानियाँ है जो आने वाली पीढ़ियों को अमन-चैन की सौगात दे जातीं है |


जिन्होने गुलामी के दिनों मे संघर्ष नहीं किया वे शायद हीं कभी आजादी की कीमत समझ पाएँ | होना भी चाहिए, आम खाना जरूरी होता है गुठलियाँ गिनना नहीं | ये आम के बगीचे, ये समतल मैदान, ये नदियों पर के बांध, ये ईंट-ईंट जोड़कर बनाए गए पुराने मकान और ये अक्षर-अक्षर तराश कर लिखीं गयी प्राचीन पुस्तकें – ये सभी हमारे धरोहर हैं और इनका उपयोग करना हमारा जन्मजात हक | इस बात से क्या मतलब कि आम के पौधों को रोपने से लेकर उनके फलने-फूलने तक हमारे पूर्वजों ने कितने पापड़ बेले होंगे | हम तो हर साल पके हुए मालदह खाकर मस्त रहते हैं | यही नहीं, सड़क के किनारे शुरू किए गए वृक्षारोपण अभियान को अपने  दातून का स्रोत बनाना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य बन गया है |


जिन चीजों को हांसिल करने के लिए हमारे परदादाओं ने खून के आँसू रोये थे हम आज अपने हीं हांथों उन्हे नेस्तनाबूत कर रहे हैं | हम गंगा मे नहाते भी है, उसकी पूजा भी करते हैं और उसमे सारे शहर का कचरा भी बहाते हैं | पेट भर अनाज खाकर हम अपने हीं देश के किसानों के रहन-सहन का मज़ाक उड़ाते हैं, और यह सोंच लेते हैं कि ऐसा करने से हमारी राष्ट्रीय साख बढ़ेगी और हम प्रगतिशील कहलाएंगे | हम अपने गुरुओं का कभी सम्मान नहीं करते और अपने बच्चे को अनुशासनहीनता के लिए लताड़ते रहते हैं |
सच तो यह है कि हमारे भीतर से राष्ट्रीयता की भावनाएं विलुप्त हो रही है और हमे इसका भान तक भी नहीं | हम भगत सिंह की जायगाथा तो गाते हैं किन्तु ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि ऐसी औलाद पड़ोसी के घर मे ही पैदा हो | हम राजनेताओं की चर्चा सुनते हीं भड़क उठते हैं लेकिन गली-मुहल्ले चारों ओर नजरें घुमाकर ऐसा हीं कोई परिचित ढूंढा करते हैं जिसकी राजनैतिक पहुँच हो | करोड़ों के घोटालों की चर्चा सुनकर विश्मय से मुंह फाड़ तो देते हैं किन्तु कोई दो रुपये भी नजराना दे तो गंदी से गंदी नाली मे भी डूबकी लगाने को तैयार हो जाते हैं | हम समाज मे भ्रष्टाचार का रोना भी रोते हैं पर विरोध करने मे हमारी पैंट ढीली हो जाती है |


यह मनोवृति राष्ट्रीय अखंडता के लिए घातक है | हमे इस बात का भान होना चाहिए कि हमारा हर कदम आने वाली पीढ़ियों का जीवन चरित लिखने की क्षमता रखता है | यदि आज हम जल इसी तरह को बर्बाद करते रहे तो अपने बच्चों के लिए नदी के किनारे मकान बनाने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचेगा | यदि खेती योग्य भूमि पर यूं हीं निर्माण होता रहा तो वह दिन दूर नही जब हमे ईंट-पथ्थरों पर हीं गुजारा करना पड़ेगा | और, यदि हम यूं हीं घरेलू झगड़ों मे उलझे रहे तो बेशक कभी राष्ट्र भी संकट मे आ सकता है |


इसीलिए हे भारत के कर्णधारों, जागो | वो दिल हीं क्या जो हिन्दुस्तानी होकर भी हिंदुस्तान के लिए न धड़क पाये | तुम उस अनुपम देश के निवासी हो जहां विदेशी भी बारंबार जन्म लेने की कल्पना किया करते हैं | ऐसी धरती और उसकी आजादी का सम्मान करना सीखो | सरहद पे बहा हुआ हर एक कतरा इसलिए नहीं बहा कि तुम कभी जाति तो कभी धर्म के नाम पर लड़ मरो, बल्कि इसलिए कि सुरक्षित और निश्चिंत रहकर एक स्वस्थ और सबल भारत का निर्माण कर सको - अपनी सांस्कृतिक एकता को पहचानो, जियो तो भारतवर्ष के लिए, किसी और के लिए जीना तो जीवन का अपमान है |

ई के कहेला कि नाही बिहान आइल बा - भोजपुरी काव्य

ई के कहेला कि नाही बिहान आइल बा - भोजपुरी काव्य
भोजपुरी काव्य द्वारा वैचारिक अरुणोदय की परिकल्पना
 

भजपुरिया शान हमनी के रगेजान मे समाइल बा |
ई के कहेला कि नाही बिहान आइल बा ||

होरहा पकाईल अउर पोखरा मे नहाइल;
सावन मे कजरी अउर जेठ मे पुरबी गाइल;
हर रंग मे एहिजा मोहब्बत मुस्कुराइल बा |

माटी वीर कुँवर के पारिजात सा महकेला;
फागुन के बयार मे सबकर मिजाज बहकेला;
बिहारी आंचर मे हिंदुस्तान लहलहाइल बा |

दिया सनेह के देख हर ओर जगमगाइल बा;
साँचो बड़भाग बा गुलनार जे  खिलाइल बा;
बगसर के आगन मे जे भी दुलार पाइल बा |

ई के कहेला कि नाही बिहान आइल बा |


सभी को नमस्ते; चलो हँसते-हँसते


सभी को नमस्ते चलो हँसते हँसते - Love to all let us laugh
चलिये हँसते हैं - let us laugh together

 

सभी को नमस्ते; चलो हँसते-हँसते |

मेरे दोस्त जो सब कमीने हुए हैं,
जिनहे देखे सालों महीने हुए हैं,
गालियाँ  देने का है मन मुझे ये पता है,
मगर पहले मेरी सुनो हँसते-हँसते |

मुझे चाहने वाली सुंदर बालाएँ,
बता दूँ रज़ा गर कभी पास आयें,
की पिज्जे पे मत लार इतना गिराओ,
है करनी वफ़ा तो करो हँसते-हँसते |

दुश्मनों का निकल जाये भगवन दिवाला,
है आशा कि उनको डसे नाग काला,
अगर डर लगा हो तो कर लें मोहब्बत,
है जलना अगर तो जलो हँसते-हँसते |

जो छूटा हो कोई तो कुछ संग देना,
जहाँ लात खानी हो वह अंग देना,
कहीं इस कृपा से अकल आ हीं जाये,
हो गिरना अगर तो गिरो हँसते-हँसते |

बसंती रुत की वेदना - Woes of Spring time

बसंत के मौसम मे  तनहाई मे दिल की व्यथा का काव्य गीत - Hindi poem on the woes of loneliness in the spring season
बसंत की खूबसूरती और हृदय की वेदना

रुत बसंती, लाजवंती, ये बता |
कौन से कूचे पे तेरा मरहला ?

सौम्य रजनी, रम्य प्रातः की सबा,
और उसमे पुष्प का सौरभ ढला |

विहग के करलव, चहक, अठखेलियाँ,
गूँजते अलियों का सरगम मदभरा |

शोख़ फागुन की हवा का आगमन,
उर से रखता है पुरातन राब्ता |

ये समां चंचल रगों को छेंडकर,
चुभ रही सी दे रही संवेदना |

सुधि-गरल जीवन के माना है सिरे,
पर फटा है आज़ कोई आबला |

नेह का मौसम चुराकर ले गयी,
शुभ्र चाहत का मेरा वह बुलबुला |

तेग हैं, सुम है मगर मक़बूल हैं,
प्यार का जिनसे मिला है ये सिला |


उम्र भर मंज़र सताएंगे हमे,
याद मे बस जाएगी यह वेदना |


ठंढी का मौसम - गीति काव्य

ठंढ के मौसम मे अलगाव का दुःख - heartache of separation in cold season
ठंढ के मौसम मे अलगाव की व्यथा सुनती हिन्दी कविता


ठंढी का मौसम है,
ठंढी है आरज़ू –
नयनों से सरक गई
उल्फ़त की आबज़ू ।

शीतल सी रजनी है;
गुमसुम निर्झरिणी है;
परिमल की बेला मे
रूठ गई ज़ुस्तज़ू ।

नभतल भी सूना है,
ग़्म का नमूना है,
मानस के मधुबन मे
यादें हैं जंगज़ू ।

अवचेतन दिनकर को,
चिर मौन हिमकर को,
उर के हिंडोले मे,
छेंड रही माहरू ।

दिलवर के जाने का,
वापस ना आने का,
अनहद सताने का,
आदत है ख़ूबरू ।

है हिन्द तो हिन्दी भी

है हिन्द तो हिन्दी भी - If India is, Hindi will be there
अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी दिवस पर कविता

 

है हिन्द तो हिन्दी भी लबे-नाब रहेगी |
अमनो-शुकून रोशनी का बाब रहेगी ||


बोली अनेक है चमन के आशियान मे,
लेकिन चिरागे-बाग़ यही ताब रहेगी |


सदरंग हैं हम फिर भी ढ़बे-रंग एक है,
मिलकर सभी के साथ ये ज़नाब रहेगी |


हिंदोस्ताँ के दिल मे लाखों बयाज़ हैं,
यह तल्ख रहेगी मगर संजाब रहेगी |


अख़्लाख के अल्फ़ाज़ मे ये है नगे-सुख़न
रह बन के सितारों मे आफ़ताब रहेगी |


नरपिचाश - The Demons


शैतानों के यहाँ एक बंधक मानव - a man captured by demons
नरपिचाशों की कैद मे कराहता मानव


“जरा सा ... बस जरा सा और ज़ूम करो | लगता है वह घोर तकलीफ मे है?”

“जिसके सीने मे सैकड़ों छेद हो वह वह तकलीफ मे तो रहेगा हीं, परंतु यह मरता क्यूँ नहीं |”

“अभी नहीं वरना सब किए-कराये पर पानी फिर जाएगा |”

राहुल पीछे आकर खड़ा हो गया | वह शनि और रणबीर को काफी देर से सुन रहा था | वह कुछ सशंकित परंतु सजग लग रहा था |
“तुमलोग भी ना यार | ये भी नहीं सोंचते कि इसने हमसब की जान बचाई है | सोंचो, अगर ये नहीं रहता तो हम सब मे से कोई भी नहीं होता | कुछ तो शर्म करो,” राहुल ने व्यंग भरे लहजे मे कहा |

“हाँ, मगर ये बहुत पहले की बात है बच्चे | अब तो हमलोगों ने इसके हड्डी भी चूस ली है | परंतु, मरने अभी नहीं देंगे, अभी थोड़ा और जान बाकी है | वैसे भी अगर ये मर गया तो हमसब करेंगे क्या? शनि ने राहुल के प्रत्युत्तर मे अपनी फुलझरी छोड़ी |

शोभा अबतक चली आई थी – बारिश मे भिंगी हुई, परंतु चेहरा तमतमाया हुआ | आते हीं उसने अपने छोटे छटे को मेज पर पताका और कुर्सी पर रखे टॉवल को खींचती हुई कंप्यूटर की ओर बढ़ गयी |

“इतनी तेज बारिश है; न तो कार पार्किंग के लिए स्पेस बनाते हैं और न हीं शेड | तिसपर ये ब्रह्मराक्षस ऐसे वीरान जगह पर डेरा डाले है कि ... ,” शोभा गुस्से मे बड़बड़ाती हुई अपने चेहरे एवं हांथ पोंछने लगी | पुनः, उसी रोष मे उसने अपनी बात जारी रखी |

“और, तुमलोग दिनभर बैठकर यहाँ पर झख मारते रहते हो | बंद करो ये मशीन-वशीन; चलो थोड़ा रिफ्रेश हो लें | वैसे भी ये सनकी आराम कहाँ लेने देता है |”
“हाँ यार,” रणवीर ने कंप्यूटर से उठते हुए कहा, “बेहोश सा पड़ा है | कुछ हरकत करे तो वीडियो एडिटिंग और वॉइस एडिटिंग का काम हो, और कोई स्टोरी, कोई फूटेज बने | वैसे भी हमने इसके खिलाफ काफी भ्रम फैला रखा है | अब अगर किसी चमत्कार से जीवित भी बच गया तो मरने की दुआ माँगेगा, और हमसे तो बिल्कुल भी नहीं टकराएगा |”

“आज उसको म्यूजिक सिस्टम सुनाया कि नहीं,” शोभा ने प्रश्न किया |

“हाँ, बस एक घंटे | लेटकर छटपटाने लगा तो छोड़ दिया | रोज वही फूटेज बनाने से क्या फायदा |” शनि ने उत्तर देते हुए चेयर को साइड किया और उठकर खड़ा हो गया | राहुल ने भी अपने कदम डाइनिंग हॉल की ओर बढ़ा दिये | गैलरी लंबी थी | जाते-जाते शनि ने टोन कसा, “हमारी बात नहीं मानने का नतीजा - एक और नया नाम, ब्रह्मराक्षस; मरने दो बेवकूफ़ को |”

“और तुमलोग क्या हो, नरपिचाश,” पीछे से तेज किन्तु संयत आवाज आई |

शनि ने तुरंत पीछे मुड़कर देखा, मगर वहाँ कोई न था | शायद यह उसके अंतरात्मा की आवाज थी |