भोला सर पर हाँथ रखकर बैठा था | इधर धड़ाधड़ फोन पे फोन आ रहे थे | इलेक्सन हारने का उसे इतना ग़म नहीं था जितना कि पैसों की बरबादी का | अगले महीने उसके मौसी की लड़की की शादी थी – न्यौता भी पूरा करना था, और कुछ तोहफा भी देना था | चुनाव प्रचार और वोट बटोरने के चक्कर मे उसकी जेबें यूँ खाली हुई जैसे छेद वाले कनस्तर से पानी | अब जो रुपये बचे थे उनसे घर का राशन-पानी भी चला पाना मुश्किल था | सबसे बड़ी चिंता तो यह थी कि दो दो महीने बाद हीं उसकी इकलौती बेटी पाँचवीं कक्षा मे प्रवेश करने वाली थी, और कोनवेंट की फीस उसके खाली बटुए के समक्ष सुरसा की तरह मुँह फाड़े खड़ी थी | लिहाजा, उसका हाँथ सर से उठ नहीं पा रहा था |
ऐसा नहीं था कि चुनाव मे हारने का उसे ग़म हीं न हो | उसने काफी बड़े बड़े ख़्वाब बुने थे, और जनता को रिझाने के वास्ते अनेक लुभावने वादे भी किए थे | मगर जो परिणाम आए वह किसी और तो क्या खुद को भी बताने के लायक नहीं थे | इतनी सफाई से लोहापुर कि जनता ने उसकी भड़कीली पतलून उतारी थी कि उसके अति-आत्मविश्वास की फटी हुई लंगोट अरुणोदय के सूर्य के समान अप्रत्यासित रूप से उभर कर प्रगट हो गयी थी |
अब वह इसी सोंच मे निमग्न है कि किस किस को क्या क्या कहना है, तथा क्या बहाना बनाकर खुद कि लज्जा बचानी है | पिताजी को क्या कहकर मनाना है जिनके लाख मना करने के बावजूद भी उसने यह आत्मघाती कदम उठाया | माँ को किस प्रकार बहलाना है जिनके सामने उसने बड़ी बड़ी डींगें हाँकी थी; और, पत्नी से कैसे नज़रें मिलानी है जो आज़ से पहले तक यही सोंच रही थी कि समूचे इलाके मे उसके पति से ज्यादा भरोसेमंद और मददगार मित्र किसी और के न थे |
कभी कभी तो उसे स्वयं पर भी हंसी आती | वह कौन सी घड़ी थी जब उसके सर पर इलेक्सन मे उतारने का भूत सवार हुआ था, और वह कौन सा दोस्त था जिसने उसे यह नेक सलाह दी थी | 16 वोट – ऐसा लगता है जैसे किसी भिखारी के आधे घंटे की कमाई, अथवा किसी छोटे बच्चे के गुल्लक मे जमा की गई एक दिन कि पूँजी | उसने मन हीं मन मे कुछ आंकड़े जोड़े ... 13 वोट तो उसके घर परिवार के हीं हो गए | एक वोट रहा उसका अपना | कुल मिलाकर हुए 14 | फिर वो कौन से दो मूढ़मति से जिन्होने उसके पक्ष मे मतदान किया | भोलू का मन आशंकाओं से भर उठता है ... कहीं उसके घरवाले भी तो ... नहीं ऐसा नहीं हो सकता ... सबने मिलकर अच्छा उत्साह जताया था ... फिर वो दो मत किसके थे ? और, और बाकी के वोट कहाँ गए ?? यही यक्ष-प्रश्न उसके मन-मानस को झकझोर रहे हैं |
भोलू उर्फ आत्माराम त्रिपाठी – कटिहार के एक छोटे से कस्बे मे जनमा था, तथा अपनी पढ़ाई कोलकाता मे जाकर पूरी की थी | उसके पिता उसे वकील बनाना चाहते थे, और उसकी माँ ने उसके डॉक्टर बनने के ख़्वाब पाल रखे थे | मगर वह स्वयं एक पेंटर बनना चाहता था | लंबी कद-काठी, चौड़ा सीना और घुँघराले बाल उसके व्यक्तित्व को रौबदार बनाते थे; तिसपर चौड़ा ललाट और उभरे हुए जबड़े उसकी उपस्थिती को और प्रभावशाली दृष्टि प्रदान करते थे | वह चबा चबाकर बोलता था, तथा उसकी आवाज़ गाढ़ी और दमदार थी | इस प्रकार वह एक नैसर्गिक लीडर था, और अपने बोलने की अलग शैली की वजह से - स्कूल-कॉलेज, आस-पड़ोस, नेता-अधिकारी – हर किसी के बीच प्रसिद्ध था |
चित्रकार बनने का सपना उसने बचपन से हीं अपने चाचा गंगूराम से विरासत मे पाई थी, जो स्वयं भी एक मझे हुए कलाकार थे | अच्छे चित्रकार होने के बावजूद गंगूराम प्रचूर प्रसिद्धि और पैसा कमाने मे असफल रहे थे | इसलिए उन्होने आत्माराम के हुनर को परिपोषित और प्रोत्साहित करने मे खासा रुचि दिखाई | आत्माराम चित्रकारी करता, और उसके चाचा उयकी तरीफ़ | इस तरह लड़कपन मे हीं भोलू एक परिपक्व और धारदार चित्रकार मे परिवर्तित हो गया, और पेंटिंग उसके राग-राग मे कुछ इस तरह समा गई कि उसे स्वयं भी इस बात का आभास नहीं हुआ |
समय पंख लगाकर उड़ता गया, और भोलू जिंदगी के हरेक रंग को अपनी जीवंत तशवीरों मे उकेरता गया | इस दरम्यान जीवन पथ पर कितने मोड तथा कितने उतार-चढ़ाव आए – यह सब अब भोलू के दिलोदिमाग से लगभग विस्मृत हो चुका है, और वह अब भी सर पकड़ कर परम ध्यान की मुद्रा मे बैठा हुआ है | घड़ी अपनी टिक-टिक की से उसकी बेचैनी बढ़ा रही है | कहीं दूर से रेलगाड़ी के सायरन की आवाज़ सुनाई देती है | भोलू की तंद्रा भंग होती है, और वह पुनः वर्तमान मे लौट आता है |
उसके सामने अब जीवन की सबसे बड़ी चुनौती आ खड़ी है – आजीविका | अपनी महत्वाकांक्षा के अतिरेक मे अपनी जवानी मे वह कई सारी सरकारी भर्तियाँ निकाल कर छोड़ चुका है | उसे सनक थी पढ़ने की,और पढ़कर कोई अच्छा प्राइवेट जॉब करने की; और उसने ऐसा किया भी | परंतु विपत्ति ने अपने पधारने से पूर्व हीं उसके विवेक को हर लिया था, वरना कौन अच्छी-ख़ासी नौकरी को लात मारकर पंचायत चुनाव मे अपनी किस्मत आजमाने चला आता है | यह कहना जरा भी गलत नहीं होगा कि बुरे वक्त ने आगमन से पूर्व उसके दिमाग के कपाट को बंद कर दिया |
भोलू को वह दिन अच्छी तरह याद है जब उसने मामूली बीमार पड़ने पर घरवालों के दबाव एवं डर के आगे घुटने टेक दिये, और यह नहीं सोंच पाया कि उम्र गुजर जाने के उपरांत कौन कमबख्त उसे नौकरी देने कि जोखिम उठाएगा | उसने सोंच रखा था कि नौकरी से कुछ कमाने पर वह अपनी तशवीरों की एक प्रदर्शनी लगवाएगा; और इस प्रकार अपने ताऊ गंगूराम की दिली ख़्वाहिश और स्वयं की अभिरूचि को एक नया आयाम प्रदान करेगा | जीवन के इस आपाधापी मे वह अपने मित्रों और सगे संबंधियों से लगभग कट सा ज्ञ था | यह भी एक ऐसा पहलू था जिसे भोलू लगातार नज़रअंदाज़ करता गया |
यह अक्षरांशतः सत्य है कि भोलू अभिमानी नहीं था, परंतु वह लोगों की निगाहों मे खुद को तौल नहीं पाया, और उनकी निगाहों मे अपनी कीमत ठीक से आंक नहीं पाया | कोई भी अनुभवी व्यक्ति यह बड़ी हीं आसानी से बता देगा कि आत्म-सम्मान और अहंकार के बीच महज़ रत्ती भर का फर्क है, तथा अति आत्मविश्वास का विश्लेषण अक्सर दोस्त और मुरीदों द्वारा गर्व के रूप मे किया जाता है | अलबता, वह समाज मे खुद के प्रति पनपती हुई गलत धारणा एवं सोंच को सही से ताड़ नहीं पाया | उसने जब-जब अपने लच्छेदार भाषणों मे स्वच्छंदतापूर्वक अपने नवीन विचार प्रगट किए, लोगों ने उसे उसका गुरूर समझा | उसने जब जब भी अपने दुर्भेद्द तर्कों से एक समतवादी माहौल बनाने की कोशिश की, बुजुर्गों और युवाओं दोनों ने उसे समान रूप से अपनी तौहीन समझी | नादान भोलू यह समझ नहीं पाया कि जनता का वोट पाने के लिए उनके मन को अच्छी लगाने वाली बात करनी पड़ती है, न कि अपने गहरे और गूढ चिंतन से उनके वैचारिक धरोहर को चुनौती दी जाती है |
भोलू मुंह के बल गिरा है | उसके विरोधी खुश हैं | उसके दोस्त खफ़ा हैं | उसके रिश्तेदार नातेदार जुदा हैं | उसके पास चंद कैनवस एवं कुछ तूलिकाएं हैं | उसका सबसे वफादार साथी उसका कुत्ता रॉकी है जो दुर्भाग्यवश वोट नहीं दे सकता | उसके संगी-साथी बगीचे के पेंड़-पौधे हैं; उसके संघर्ष के साक्षी भूतल के पशु-पक्षी, जमीन, बहती हवा और आसमान है | उसका प्रतिद्वंदी वह स्वयं है |
भोलू चाहकर भी कुछ और सोंच नहीं पाता | उसका मनोबल पस्त है | उसका आत्मसमान धूल मे ठोकरें खा रहा है | वह पुनः एक गहरे विमर्श मे तल्लीन हो जाता है | उसने कहाँ गलतियाँ की ? उसके सारे साथी उससे नाराज़ क्यूँ हैं ? क्या वजह है कि उसके सबसे भरोसेमंद सिक्के – जिनकी वफ़ा और स्नेह पर उसे नाज़ था – आज़ अचानक खोटे सिद्ध हो गए ? क्या कारण है कि वह एकदम परित्यक्त एवं अकेला महसूस कर रहा है ? भोलू निराशा के चरम पर है | ज़िंदगी भर की दोस्ती और वफ़ादारी का ऐसा सिला ! जाने-पहचाने तो अलग, अंजाने लोगों का नाहक हीं मदद करने का ऐसा प्रतिदान ! कुछ पलों के लिए उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे जमीन-आसमान, चाँद-सितारे सभी मिलकर उसकी खिल्ली उड़ा रहे हों | वह सर को और मजबूती से पकड़ लेता है |
तभी उसे ऐसा लगा मानो उसके स्वयं की अंतरात्मा उससे कुछ कह रही है; वह गौर से सुनने लगता है |
“भोलू”
“क्या है ? अब कौन मुझे पुकार रहा है और क्यूँ ?”
“मै हूँ – तुम्हारा अक्स |”
“क्या बात है ?”
“रूठे दोस्तों को नहीं मनाना क्या ? अपने ख्वाबों की ज़िन्दगी नहीं जीनी क्या ?”
“मगर कैसे ?”
“उस एक सपने से जिसे तुमने बालपन से हीं अपने जेहन मे पाल रखा है |”
“मगर वह सपना तो अब सपना हीं बनकर रह गया है |”
“नहीं, वह सत्य भी हो सकता है |”
“पहेलियाँ मत बुझाओ; जो कहना है साफ-साफ कहो |”
“तो उठो और अपनी तूलिका संभालो | जीवन कई पहलू आज़ भी अनछुए से हैं; अपने अहसाह के रंग उनमे भरो | देखो ! तुम्हें सारी कायनात पुकार रही है | रंजो-ग़म की मारी दुनिया तुम्हारे हसीन चित्रो को अंगीकार कर अपनी क्लांति मिटाना चाहती है | जागो मेरे हमसाये ! नवजीवन कि ज्योति तुम्हें आवाज़ देकर पुकार रही है | उन्हे कदापि निराश मत करो |”
भोलू उठता है | इस छोटी सी ज़िंदगी मे उसने ऐसे कितने रंग देख लिए कि शायद वह आज से प्रारम्भ करके कभी भी खत्म न कर पाये | उसने तूलिका पकड़ी – ओह, तो यह है मेरा सबसे भरोसेमंद मित्र – पेंटिंग |