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अशोक


ashok-अशोक


द्वापर युग के चौथे चरण मे युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के ठीक तीन दिन बाद सुदूर अफ्रीका के एक जंगली कबीले मे एक विकट अभागे बालक का प्रादुर्भाव हुआ | उसके गरीब कृषक पिता ने प्यार से उसका नाम रंजन रखा – दरअसल, यह नामकरण एक यायावर महात्मा की सलाह पर सम्पन्न हुआ |

रंजन जन्म से हीं चंचल था, और अपने नाम के अनुरूप हीं सदा हँसता-खिलखिलाता रहता | गंभीरता तो उसके स्वभाव मे थी हीं नहीं | बड़े से बड़े कष्ट को वह मुस्कुरा कर झेल जाता | गहरे चोट खाकर भी वह तनिक विचलित नहीं होता था | अपने साथी-सांघातियों के साथ जूझते-खेलते वह बच्चा जल्द हीं युवा मे तब्दील हो गया |

किस्मत की बानगी देखिये, एक दिन रंजन कबीले के सरदार के पुत्र के साथ तलवारबाजी कर रहा था | सरदार का लड़का हर दांव पर मात खा रहा था | मगर अकड़ ऐसी कि स्वयं हीं बारंबार ललकार रहा था | रंजन भी कौन सा कम था | वह भी दुगने जोश के साथ अपने पैंतरे आजमाने लगा | इतने मे रंजन का एक वार सरदार-पुत्र के कान पर जा लगा, और वह कान धड़ से जमीन पर आ गिरी |

हाहाकार मचा | सभा बुलाई गई | जंगल के निर्मम कानून के अनुसार उसे देशनिकाला देकर उसके पूर्ण बहिष्कार का फैसला सुनाया गया | उसके पास से शिकार के सारे औज़ार और हथियार छीन लिए गए | यह तय हुआ कि जिसे भी यह जहां कहीं भी नजर आए, उसी वक्त उसे दो घूंसे लगाए | कबीले मे उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया गया |

अब न तो वह अपने घर जा सकता था, और ना हीं किसी और के यहाँ खा-पी सकता था | इस प्रकार घाँस-फूस और वन के कंद-मूल खाकर वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा | जब कभी वह संगत के लालच मे अथवा कौतूहलवश गाँव का रुख करता घूंसों की मार खाकर पुनः वापस जंगल मे पलायन कर जाता | अब सघन जंगल और पहाड़ी नदी का किनारा हीं उसके ठिकाने बनकर रह गए |

रंजन ने चमत्कारिक रूप से खुद को इस नए कलेवर मे ढाल लिया | उसकी सहनशक्ति बेमिशाल थी | रोज मार खाकर भी वह उफ तक न बोलता | इसी बीच उसके माँ-बाप गुजर गए, और इकलौती बहन की शादी भी हो गयी, परंतु उसकी आँखों मे अश्रु की एक बूंद भी न आया | अपनी इन्हीं विशेषताओं की वजह से जल्द हीं वह अशोक के नाम से पूरे इलाके मे प्रसिद्ध हो गया |

समय ने करवट ली | एक बार उस कबीले पर एक प्रतिद्वंदी सरदार ने अचानक हीं आक्रमण कर दिया | लगभग सारे लोग मारे गए | समूचा गाँव रक्त और लाशों की ढेर मे तब्दील हो गया | अशोक उस वक्त नदी के तीर पर था | वापस आकर उसने यह दारुण दृश्य देखा | औरतों, बच्चों की चित्कार सुनी | वह तब भी विचलित नहीं हुआ | उसकी चेतना अप्रभावित रही | अशोक ने ठंडी उसाँस भरी, और अपनी आँखें मूँद ली |