गुजरती जिंदगी के राह को वीरान पाऊँ |
हृदय विगलित हुआ जाता कहाँ इंसान पाऊँ ||
वही मंजिल, वही चेहरे, वही राही डगर पर,
मगर वह प्रेम से मंडित कहाँ मुस्कान पाऊँ |
लिखे हैं गीत भी मैंने समर्पित लेखनी से,
मधुर सुर मे ढला लेकिन कहाँ पर तान पाऊँ |
मिले हैं भोग के साधन विध्वंसक अस्त्र भी हैं,
मनुज-कल्याण मे अर्पित कहाँ विज्ञान पाऊँ |
सुना है देश के नेता गरीबी तोड़ देंगे,
कृषक के झोपड़ों मे पर कहाँ उत्थान पाऊँ |
कभी सम्राट थे होते अनोखे तेज वाले,
महल मे आज के लेकिन कहाँ वह शान पाऊँ |
किसी मे दम कहाँ इतना जमाने को बदल दे,
मगर नवसृष्टि की खातिर कहाँ भगवान पाऊँ |